अफसाना ए ज़िन्दगी


 अजब अफसाना है तेरा भी ऐ ज़िन्दगी,
 की जब बचपन था तब मासूमियत थी,
 लड़कपन में आये तो मौज मस्ती थी,
 पर जब जवानी आयी तो न जाने कहा से ये ऊँच नीच,
 अपना पराया और पैसो का घमंड भी साथ ले आयी|

 समझ नहीं आता कि  हम वही है जो बचपन में खेलते वक़्त,
 बॉल लाने नाली में बिना हिचकिचाए यूँही कूद जाया करते थे बेबाक बेपरवाह,
 तब न ऊँच नीच का ज्ञान था न हिन्दू मुसलमान का,
 न किया अमीर गरीब में भेद तब तो बस आपस में याराना था,
 सबके बीच कुछ ऐसा ही याराना था|

 आज उन्ही पलों को याद करो तो गिलानी होती है खुद से,
 और लगता है नजाने कैसे नज़र मिलाएंगे हम खुदा से,
 किस जुबां से कहेंगे कि कर लिया भेद भाव हमने तेरे ही बनाये बन्दों से,
 के आखिर क्यों जकड़ लेती हमे समाज की ये संक्रिण मानसिक्तायें,
 के जिनके साथ बचपन साथ गुज़ारा था आज उन्हें,
 समाज की भीड़ में रुतबे की आड़ में  पीछे बहुत दूर छोड़ आये है,
 पैसो के  खूब कमल किया है अपनों को पराया और परायों को अपना किया है| 

 कितना अजब अफसाना है तेरा भी ए ज़िन्दगी,
 कि कौन है वो चार लोग जिनके बारे में सोच के न जाने कितनी ज़िंदगियाँ उन्ही बरबाद हो जाती है,
 अगर वो चार लोग इतने ही मायने रखते है तो कहा थे वो चार लोग जब दामिनी के दामन से खिलवाड़ हुआ?
 और कहा थे वो चार लोग जब एक माँ ने अपने बच्चे को चाँद पैसों के आभाव में अपनी ही गोद में दम तोड़ते   देखा था?

 आज चोर दीजिये सब जी हाँ सब रुतबा, पैसों का घमंड, ऊँच नीच का भेद,
 बस लौट जाइये फिरसे उसी बचपन में और खोज लीजिये अपने अंदर के उस छोटे से बच्चे को,
 जो था इन सब चीज़ो से परे,
 अजब अफसाना है तेरा भी ज़िंदगी अजब अफसाना है........... 
  
                                                                  ------ तन्मय प्रकाश जोहरी 

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